नदी की आत्मकथा हिंदी निबंध essay on nadi ki atmkatha

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नदी की आत्मकथा हिंदी निबंध essay on nadi ki atmkatha 

मैं नदी हूँ। चंचल, स्वच्छंद, इठलाती हुई। मेरा जन्म हिमालय की गोद में एक छोटे से झरने के रूप में हुआ। वहाँ से निकलकर मैं मंथर गति से आगे बढ़ती गई, और फिर अचानक मुझे गति मिल गई और मैं कलकल करती, उछलती कूदती, कुलांचिया भरती बड़ी शीघ्र गति से दौड़ने लगी। सुबह जब पूरब की लालिमा से आसमान रंगबिरंगा हो उठता, तो मेरा सीना भी दर्पण बन जाता और उन खूबसूरत रंगों को अपने में समा लेता। रात को जब चंद्रमा अपनी रूपहली किरणें बिखेरता तो मैं एक एक किरण को समेट लेती और चांदी सी चमकती। मेरे दोनों तट पर हरे-भरे पेड़ लगे हुए हैं। आसपास हरीभरी घास बिखरी हुई है। कभी पेड़ों में से साँय साँय बहने वाली हवा से मैं बातें करती। मछलियां जब मेरे अंदर यहाँ वहाँ फुदकती फिरती तो मुझे गुदगुदाहट होती और मैं खिलखिलाकर हँसने लगती।

परंतु मेरा यह सलौना मासूम रूप अचानक वर्षा ऋतु में बदल जाता। जब घनघोर घटाएं छां जाती और धरती पर खूब बरसती, तो मैं विकराल रूप धारण कर लेती। मैं अपनी सीमा लांघने पर मज़बूर हो जाती और मेरे रास्ते में आनेवाले हर एक को उखाड़ फेंकती, फिर घर हों या वृक्ष, पशु हो या मानव। परंतु सचमुच मुझे इस बात का बड़ा ही दुख है, क्योंकि मैं विनाश करना नहीं चाहती हैं, परंतु क्या करूँ, इसके पीछे तो मानव ही कारण है ना!

आप कहेंगे मानव कारण कैसे? मानव ने प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया है। प्रदूषण फैलाया है। लोग तो सरेआम आकर कचरा मेरी गोद में उछाल जाते हैं। कारखाने अपना गंदा, जहरीला पानी मुझमें बहा देते हैं। एक समय मेरा पानी मीठा हुआ करता था। कई जानवर आकर अपनी प्यास बुझाते थे। इठलाती हुई नारियां आकर अपनी गगरी भर जाती थीं। परंतु कहते हैं कि अब भरा पानी पीने लायक नहीं रहा, विषैला हो गया है। यही सब कुछ नहीं है, वनों के कट जाने से, खाड़ियों को भरकर मकान बनाने से भी पर्यावरण का संतुलन बिगड़ गया है जिसकी वजह से असमय वर्षा और कभी अकाल का खतरा बढ़ गया है। इसीलिए कभी तो मैं बाढ़ के कारण भीषण रूप धारण कर लेती हूँ, तो कभी मेरी धारा सूखकर मात्र पतली लंबी नहर बनकर रह जाती है। पहले तो मैं हँसती खिलखिलाती, दौड़ती हुई समुद्रमिलन की आस लिए हुए आगे बढ़ती थी। परंतु अब तो मैं बीच में ही कहीं सूख जाती हूँ। हाँ, अपने मित्र से मिलने का यह आनंद मुझे वर्षा ऋतु में मिल जाता है। और तब मैं रुकती नहीं, दौड़कर समुद्र की बाहों में समा जाती हूँ। यही है मेरी आत्मकथा।

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